‘तुम्हारा लिखा अच्छा लगता है,तुम ‘ मच ओवर इमोशनल ‘ हो यार !
और ऊपर से तुम्हारी ये भाषा.. ओ गॉड।
लेकिन तुम्हारी बातें मुझे समझ में आती हैं, तुम्हारे तरीके से कहूँ तो -‘तुम्हारी बातो के अर्थ पहुँचते हैं मुझ तक, उसी मनोभाव के साथ जो तुमने समझाना चाहा है’
(उफ्फ़, सी माय हिंदी 😛 कहीं ये तुम्हारा असर तो नहीं? )
तुमसे बस इतना ही कहना है कि तुम और मैं एक दुसरे से बहुत अलग हैं, जिस तरह इन MNCs की नौकरियों और मेरे माहौल ने मुझसे मेरी भाषाई आदतें छीन लीं हैं उसी तरह वो कहीं बंध जाने को आतुर रहने वाला मन भी मुझसे छिन गया है… हाँ, सिर्फ आदतेँ ही छूटी हैं !
क्यूंकि मेरी आत्मा तो आज भी वैसी ही है,मेरा मन भी वैसी ही भाषा बोलता-समझता है जैसे तुम लिखते हो- तुम्हारे लिखे पत्रों से मैं अपना अस्तित्व पा जाती हूँ, इसीलिये आजतक मैं कभी तुम्हारे पत्र उस तरह नकार नहीं सकी जिस तरह अक्सर तुम्हे और तुम्हारे प्रेम को नकारती रही हूँ।
मैं स्वतंत्र सिर्फ दिखाई देती हूँ, अपने आप से तो आज भी बंधी हूँ। मुझे वाक़ई नहीं पता कि मैं बंधना कहाँ और कैसे चाहती हूँ ,लेकिन बंध जाना ज़रूर चाहती हूँ…
मैं जानती हूँ तुमसे जुड़ना बहुत सुखद अनुभव होगा लेकिन इसके लिए मुझे खुद से बहुत बाहर आना होगा…बहुत समझाना होगा खुद को…दरअसल खुद का बनाया बहुत कुछ ढहाना होगा !
और यह सब चीज़ें बहुत वक़्त चाहती हैं बल्कि पूरी ज़िंदगी मांग रही हैं –
‘क्या तुम मुझे सोचने-समझने का इतना वक़्त दे पाओगे ? ‘
मैं इतना सब इसलिये भी कह रहीं हूँ क्योंकि मैं तुम्हें ‘हाँ’ नहीं कह पाऊँगी ।
मैं तुम्हारे अर्थो को समझने के लिए सदा रहूंगी लेकिन मुझसे तुम्हारे शब्दों का निबाह नहीं हो सकेगा, उसी तरह मैं तुम्हारे दुःख में सहभागी हो सकती हूँ लेकिन इस यात्रा में सहयात्री नहीं बन सकूंगी।
यह सुख जी पाना शायद मेरे भाग्य में नहीं है, सामर्थ्य तो वैसे भी नहीं था।
जानते हो ?
- “प्रेमिका भी अपनी क्षमताओं से परे सिर्फ प्रेम ही कर पाती हैं “
वैसे भी प्रेम तो सबका सबसे ही है।
-पत्र के उत्तर से नहीं ‘प्रतिपत्र से’